ऐसे गुम-सुम वो सोचते क्या थे
जाने यारों के फ़ैसले क्या थे
हम तो यूँ ही रुके रहे वर्ना
अपने आगे वो फ़ासले क्या थे
बोझ दिल का उतारना था ज़रा
वर्ना तुम से हमें गिले क्या थे
सहरा सहरा लिए फिरे हम को
वो जुनूँ के भी सिलसिले क्या थे
दूर तक थी न गर कोई मंज़िल
फिर वो उजले निशान से क्या थे
हम ही थे जो यक़ीन कर बैठे
वर्ना उन के वो मो'जिज़े क्या थे
सर-फिरे थे कि मस्ख़रे यारो
जो हमें यूँ लिए फिरे क्या थे
ग़ज़ल
ऐसे गुम-सुम वो सोचते क्या थे
बलबीर राठी