ऐसे देखा है कि देखा ही न हो
जैसे मुझ को तिरी पर्वा ही न हो
बाज़ घर शहर में ऐसे देखे
जैसे उन में कोई रहता ही न हो
मुझ से कतरा के भला क्यूँ जाता
शायद उस ने मुझे देखा ही न हो
ये समझता है हर आने वाला
मैं न आऊँ तो तमाशा ही न हो
यूँ भटकने पे हूँ क़ाने जैसे
रास्तों में कोई दरिया ही न हो
रात हर चाप पे आता था ख़याल
उठ के देखूँ कोई आया ही न हो
कैसे छोड़ूँ दर-ओ-दीवार अपने
क्या ख़बर लौट के आना ही न हो
हैं सभी ग़ैर तो अपना मस्कन
शहर क्यूँ हो कोई सहरा ही न हो
यूँ तो कहने को बहुत कुछ है 'शुऊर'
क्या कहूँ जब कोई सुनता ही न हो
ग़ज़ल
ऐसे देखा है कि देखा ही न हो
अनवर शऊर