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ऐसे छूते हैं तसव्वुर में तुझे हम चुप-चाप | शाही शायरी
aise chhute hain tasawwur mein tujhe hum chup-chap

ग़ज़ल

ऐसे छूते हैं तसव्वुर में तुझे हम चुप-चाप

मजाज़ जयपुरी

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ऐसे छूते हैं तसव्वुर में तुझे हम चुप-चाप
जैसे फूलों को छुआ करती है शबनम चुप-चाप

तर्क-ए-उल्फ़त पे भी कर जाते हैं अक्सर गुमराह
मेरे ख़्वाबों को तिरे गेसू-ए-पुर-ख़म चुप-चाप

जैसे करती ही नहीं तंग हमें ये मासूम
कैसे जाती है शब-ए-हिज्र सहर-दम चुप-चाप

कोई मिलता ही नहीं उस को सुख़न का मौज़ूअ'
बैठी रहती है मेरे पास शब-ए-ग़म चुप-चाप

शोरिश-ए-वक़्त ने बख़्शी नहीं जा-ए-अफ़सोस
या'नी करना ही पड़ा ज़ीस्त का मातम चुप-चाप

मौज-ए-हंगाम-ए-चराग़ाँ है न वो रंग-ए-अबीर
शोख़ी-ए-ईद भी ख़ामोश मोहर्रम चुप-चाप

मेरी आँखें हैं तिरे हुस्न की गोया तस्वीर
मैं ने देखा है तिरे हुस्न का आलम चुप-चाप

दौर-ए-इबलीस के ये बादा-गुसारान 'मजाज़'
पीते रहते हैं जहन्नम का जहन्नम चुप-चाप