ऐसा लगता है जैसे पूरी है
ये कहानी मगर अधूरी है
हिज्र तो ख़ैर उस का लाज़िम था
वस्ल भी अब बहुत ज़रूरी है
मेरी आँखों के जुर्म में शामिल
उन निगाहों की बे-क़ुसूरी है
मेरे अल्फ़ाज़ हो रहे हैं ख़र्च
क़ौम की मुफ़्त में मश्हूरी है
यूँ मिरा ताज-ओ-तख़्त छीन लिया
जैसे वो शेर-शाह-सूरी है
इन दिनों उस के सामने दिल की
जी-हुज़ूरी ही जी-हुज़ूरी है
किस क़दर शोख़ कर दिया मुझ को
इश्क़ मिट्ठू-मियाँ की चूरी है
ग़ज़ल
ऐसा लगता है जैसे पूरी है
ज़ीशान साहिल