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ऐ सोज़-ए-दरूँ रंग-ए-वफ़ा और ही कुछ है | शाही शायरी
ai soz-e-darun rang-e-wafa aur hi kuchh hai

ग़ज़ल

ऐ सोज़-ए-दरूँ रंग-ए-वफ़ा और ही कुछ है

इसहाक़ अतहर सिद्दीक़ी

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ऐ सोज़-ए-दरूँ रंग-ए-वफ़ा और ही कुछ है
अब दिल के धड़कने की सदा और ही कुछ है

कूचे में तिरे शोर-ए-फ़ुग़ाँ कम नहीं लेकिन
दरवेश-ए-दुआ-गो की सदा और ही कुछ है

दिलकश है बहुत पैरहन-ए-लाला-ओ-गुल भी
लेकिन तिरा अंदाज़-ए-क़बा और ही कुछ है

जैसे किसी मौसम का गुज़र ही न रहा हो
कुछ दिन से ज़माने की हवा और ही कुछ है

दौर-ए-तरब-अंगेज़-चमन ख़ूब है लेकिन
बे-हल्का-ए-गुल रक़्स-ए-सबा और ही कुछ है

नज़राना-ए-जाँ भी नहीं हक़दार-ए-तवज्जोह
शायद तिरा दस्तूर-ए-वफ़ा और ही कुछ है

लहजे तो बहुत शोख़ हैं रंगीं-सुख़नों के
'अतहर' तिरा उस्लूब-ए-नवा और ही कुछ है