ऐ सोज़-ए-दरूँ रंग-ए-वफ़ा और ही कुछ है
अब दिल के धड़कने की सदा और ही कुछ है
कूचे में तिरे शोर-ए-फ़ुग़ाँ कम नहीं लेकिन
दरवेश-ए-दुआ-गो की सदा और ही कुछ है
दिलकश है बहुत पैरहन-ए-लाला-ओ-गुल भी
लेकिन तिरा अंदाज़-ए-क़बा और ही कुछ है
जैसे किसी मौसम का गुज़र ही न रहा हो
कुछ दिन से ज़माने की हवा और ही कुछ है
दौर-ए-तरब-अंगेज़-चमन ख़ूब है लेकिन
बे-हल्का-ए-गुल रक़्स-ए-सबा और ही कुछ है
नज़राना-ए-जाँ भी नहीं हक़दार-ए-तवज्जोह
शायद तिरा दस्तूर-ए-वफ़ा और ही कुछ है
लहजे तो बहुत शोख़ हैं रंगीं-सुख़नों के
'अतहर' तिरा उस्लूब-ए-नवा और ही कुछ है

ग़ज़ल
ऐ सोज़-ए-दरूँ रंग-ए-वफ़ा और ही कुछ है
इसहाक़ अतहर सिद्दीक़ी