ऐ शहर-ए-ख़िरद की ताज़ा हवा वहशत का कोई इनआम चले
कुछ हर्फ़-ए-मलामत और चलें कुछ विर्द-ए-ज़बाँ दुश्नाम चले
इक गर्मी-ए-जस्त-ए-फ़रासत है इक वहशत-ए-पा-ए-मोहब्बत है
जिस पाँव की ताक़त जी में हो वो साथ मिरे दो-गाम चले
ऐसे ग़म-ए-तूफ़ाँ में अक्सर इक ज़िद को इक ज़िद काट गई
शायद कि नहंग-आसार हवा कुछ अब के हरीफ़-ए-दाम चले
जो बात सुकूत-ए-लब तक है उस से न उलझ ऐ जज़्बा-ए-दिल
कुछ अर्ज़-ए-हुनर की लाग रहे कुछ मेरे जुनूँ का काम चले
ऐ वादी-ए-ग़म ये मौज-ए-हवा इक साज़-ए-राह-ए-सिपाराँ है
रुकती हुई रौ ख़्वाबों की कोई या सुब्ह चले या शाम चले
तुझ को तो हवाओं की ज़द में कुछ रात गए तक जलना है
इक हम कि तिरे जलते जलते बस्ती से चराग़-ए-शाम चले
जो नक़्श-ए-किताब-ए-शातिर है उस चाल से आख़िर क्या चलिए
खेले तो ज़रा दुश्वार चले हारे भी तो कुछ दिन नाम चले
क्या नाम बताएँ हम उस का नामों की बहुत रुस्वाई है
कुछ अब के बहार-ए-ताज़ा-नफ़स इक दौर-ए-वफ़ा बे-नाम चले
ये आप कहाँ 'मदनी'-साहिब कुछ ख़ैर तो है मय-ख़ाना है
क्या कोई किताब-ए-मय देखी दो एक तो दौर-ए-जाम चले
ग़ज़ल
ऐ शहर-ए-ख़िरद की ताज़ा हवा वहशत का कोई इनआम चले
अज़ीज़ हामिद मदनी