ऐ साक़ी-ए-मह-वश ग़म-ए-दौराँ नहीं उठता 
दरवेश के हुजरे से ये मेहमाँ नहीं उठता 
कहते थे कि है बार-ए-दो-आलम भी कोई चीज़ 
देखा है तो अब बार-ए-गरेबाँ नहीं उठता 
क्या मेरे सफ़ीने ही की दरिया को खटक थी 
क्या बात है अब क्यूँ कोई तूफ़ाँ नहीं उठता 
किस नक़्श-ए-क़दम पर है झुका रोज़-ए-अज़ल से 
किस वहम में सज्दे से बयाबाँ नहीं उठता 
बे-हिम्मत-ए-मर्दाना मसाफ़त नहीं कटती 
बे-अज़्म-ए-मुसम्मम क़दम आसाँ नहीं उठता 
यूँ उठती हैं अंगड़ाई को वो मरमरीं बाँहें 
जैसे कि 'अदम' तख़्त-ए-सुलैमाँ नहीं उठता
 
        ग़ज़ल
ऐ साक़ी-ए-मह-वश ग़म-ए-दौराँ नहीं उठता
अब्दुल हमीद अदम

