ऐ नसीम-ए-सहरी हम तो हवा होते हैं 
दम जो घुटता है मोहब्बत में ख़फ़ा होते हैं 
हम फ़क़ीराना ग़ज़ल कहते हैं ऐ शाह-ए-जहाँ 
ख़ैर हो ख़ैर हो मसरूफ़-ए-दुआ होते हैं 
बहर-ए-आलम में ये इंसान हैं मानिंद-ए-हबाब 
दम में बनते हैं ये दम-भर में फ़ना होते हैं 
हम ग़रीबों को न इस बज़्म से उठवा ऐ बुत 
सोहबत-ए-आम में ख़ासान-ए-ख़ुदा होते हैं 
हम में और उन में बढ़ा राब्ता 'अख़्तर' इतना 
हम पे वो सदक़े हैं हम उन पे फ़िदा होते हैं
        ग़ज़ल
ऐ नसीम-ए-सहरी हम तो हवा होते हैं
वाजिद अली शाह अख़्तर

