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ऐ जज़्ब-ए-मोहब्बत तू ही बता क्यूँकर न असर ले दिल ही तो है | शाही शायरी
ai jazb-e-mohabbat tu hi bata kyunkar na asar le dil hi to hai

ग़ज़ल

ऐ जज़्ब-ए-मोहब्बत तू ही बता क्यूँकर न असर ले दिल ही तो है

आरज़ू लखनवी

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ऐ जज़्ब-ए-मोहब्बत तू ही बता क्यूँकर न असर ले दिल ही तो है
सीधी भी छुरी टेढ़ी भी छुरी दिल-दोज़ नज़र क़ातिल ही तो है

जब हूक उठेगी तड़पेगा इंसाफ़ न छोड़ो दिल ही तो है
ना-चंद थकन का सब्र-ओ-सुकूँ बिस्मिल आख़िर बिस्मिल ही तो है

तूफ़ान-ए-बला की मौजों में कीं बंद आँखें और फाँद पड़े
कश्ती ने जहाँ टक्कर खाई दिल बोल उठा साहिल ही तो है

है ज़र्फ़ यहाँ किस का कितना दिल बस है उसी का पैमाना
रोना भी बुरा हँसना भी बुरा जो बात है वो मुश्किल ही तो है

ना-ख़ुश है तो क्या है ख़ुश है तो क्या जैसा भी सही है तू अपना
ये साथ नहीं छुटने वाला बे-कस का सहारा दिल ही तो है

हैं मौत के इस जीने में मज़े ग़म जिस को न हो वो क्या समझे
जब साबित करते बन न पड़े जो दावा है बातिल ही तो है

थी ख़िज़्र-ए-तरीक़ उफ़्ताद यहाँ और संग-ए-हवादिस संग-ए-निशाँ
हद राह-ए-तलब की आ गई हाँ जाता है कहाँ मंज़िल ही तो है

दुख दे के उल्टे देना क्या फ़रियाद नतीजा है ग़म का
जब ठेस लगी शीशा ठंका पत्थर न समझिए दिल ही तो है

आप 'आरज़ू' अब ख़ामोश रहें कुछ अच्छी बुरी खुल कर न कहें
हैं जितने मुँह इतनी बातें महफ़िल आख़िर महफ़िल ही तो है