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ऐ हम-नफ़स उस ज़ुल्फ़ के अफ़्साने को मत छेड़ | शाही शायरी
ai ham-nafas us zulf ke afsane ko mat chheD

ग़ज़ल

ऐ हम-नफ़स उस ज़ुल्फ़ के अफ़्साने को मत छेड़

वलीउल्लाह मुहिब

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ऐ हम-नफ़स उस ज़ुल्फ़ के अफ़्साने को मत छेड़
बस सिलसिला जुम्बाँ न हो दीवाने को मत छेड़

जिस रंग से है दिल में मिरे इश्क़ रुख़-ए-यार
नासेह न हो दीवाना परी-ख़ाने को मत छेड़

वो शम-ए-मजालिस तो है फ़ानूस में रौशन
ऐ इश्क़ तू मुझ सोख़्ता परवाने को मत छेड़

तो आप है पैमाँ-शिकन इस दौर में साक़ी
कहता है मुझे बज़्म में पैमाने को मत छेड़

तरवार से क्या हम को डराता है मियाँ जा
याँ आप से मौजूद हैं मर जाने को मत छेड़

हमदम न कह उस वक़्त कि बोसे की तलब कर
मज्लिस में मुझे गालियाँ दिलवाने को मत छेड़

मंज़ूर अगर छेड़ हँसी की है तो प्यारे
होते 'मुहिब' अपने के तो बेगाने को मत छेड़