ऐ गर्द-बाद तर्फ़-ए-चमन टुक गुज़ार कर
बुलबुल के पर पड़े हैं गुलों पर निसार कर
आए थे ऐश के लिए सो तू न याँ मिला
फिर ग़म-कदा को उठ चले हम अपने हार कर
क्या मुस्कुरा के टाले है अब फिर कब आएगा
दिल बे-क़रार होता है कुछ तो क़रार कर
दाग़ों से दिल के सीना तो है रश्क-ए-लाला-ज़ार
हाँ अश्क-ए-सुर्ख़ तू भी तो अपनी बहार कर
धज्जी भी एक छोड़ी न दामान-ओ-जेब की
दस्त-ए-जुनूँ ने लूटा मुझे तार तार कर
वो भी न आया और नज़र आने से रह गया
देखा मज़ा न और दिल अब इंतिज़ार कर
बे-चीज़ तो नहीं ये 'हसन' उस गली में रोज़
जा जा के बात करते हर इक से पुकार कर
ग़ज़ल
ऐ गर्द-बाद तर्फ़-ए-चमन टुक गुज़ार कर
मीर हसन