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ऐ गर्द-बाद तर्फ़-ए-चमन टुक गुज़ार कर | शाही शायरी
ai gard-baad tarf-e-chaman Tuk guzar kar

ग़ज़ल

ऐ गर्द-बाद तर्फ़-ए-चमन टुक गुज़ार कर

मीर हसन

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ऐ गर्द-बाद तर्फ़-ए-चमन टुक गुज़ार कर
बुलबुल के पर पड़े हैं गुलों पर निसार कर

आए थे ऐश के लिए सो तू न याँ मिला
फिर ग़म-कदा को उठ चले हम अपने हार कर

क्या मुस्कुरा के टाले है अब फिर कब आएगा
दिल बे-क़रार होता है कुछ तो क़रार कर

दाग़ों से दिल के सीना तो है रश्क-ए-लाला-ज़ार
हाँ अश्क-ए-सुर्ख़ तू भी तो अपनी बहार कर

धज्जी भी एक छोड़ी न दामान-ओ-जेब की
दस्त-ए-जुनूँ ने लूटा मुझे तार तार कर

वो भी न आया और नज़र आने से रह गया
देखा मज़ा न और दिल अब इंतिज़ार कर

बे-चीज़ तो नहीं ये 'हसन' उस गली में रोज़
जा जा के बात करते हर इक से पुकार कर