ऐ बुत जो शब-ए-हिज्र में दिल थाम न लेते
कलमा में भी होता तो तिरा नाम न लेते
ज़िद पर अगर आ जाएँ हम ऐ रश्क-ए-मसीहा
मर जाते मगर मुँह से तिरा नाम न लेते
कामिल कोई मिलता जो ख़रीदार-ए-दिल-ओ-जाँ
ये जिंस यूँही बेचते हम दाम न लेते
क्यूँ हश्र में दीवाना हमें कह के पुकारा
नफ़रत थी तो अब भी वो मिरा नाम न लेते
वहशत-कदा-ए-दहर में चलता जो बस अपना
दुश्मन से मोहब्बत के सिवा काम न लेते
जारोब-कशी मिलती अगर कर्ब-ओ-बला की
हाथों से 'मुनीर' और कोई काम न लेते
ग़ज़ल
ऐ बुत जो शब-ए-हिज्र में दिल थाम न लेते
मुनीर शिकोहाबादी