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अहल-ए-ज़ाहिर को फ़न्न-ए-जल्वा-गरी ने मारा | शाही शायरी
ahl-e-zahir ko fann-e-jalwa-gari ne mara

ग़ज़ल

अहल-ए-ज़ाहिर को फ़न्न-ए-जल्वा-गरी ने मारा

अली जव्वाद ज़ैदी

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अहल-ए-ज़ाहिर को फ़न्न-ए-जल्वा-गरी ने मारा
अहल-ए-बातिन को तवाना-नज़री ने मारा

तल्ख़ थी मौत मगर ज़ीस्त से शीरीं-तर थी
उस से पूछो जिसे बे-बाल-ओ-परी ने मारा

मुंदमिल होते हुए ज़ख़्म हरे होने लगे
साए साए में तिरी हम-सफ़री ने मारा

दश्त-ए-ग़ुर्बत के शब-ओ-रोज़ की लज़्ज़त न मिली
सर वतन में भी बहुत दर-ब-दरी ने मारा

इश्क़ और दस्त-ए-तलब ऐसी भी क्या मजबूरी
शौक़ को काविश-ए-दरयूज़ा-गरी ने मारा

ज़ख़्म-ए-पारीना भरा ही था कि ऐ सोज़न-ए-हाल
और इक तीर तिरी बख़िया-गरी ने मारा

दाद-ओ-शमशीर ने जब जब भी डराना चाहा
क़हक़हा शौक़ की शोरीदा-सरी ने मारा

सुल्ह करना तो ज़माने से है आसाँ लेकिन
मुझ को 'ज़ैदी' मिरी बालिग़-नज़री ने मारा