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अहल-ए-ईमाँ से न काफ़िर से कहो | शाही शायरी
ahl-e-iman se na kafir se kaho

ग़ज़ल

अहल-ए-ईमाँ से न काफ़िर से कहो

शाद लखनवी

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अहल-ए-ईमाँ से न काफ़िर से कहो
ऐ बुतो लेकिन ख़ुदा-लगती कहो

गर मिलें यारान-ए-रफ़्ता पूछिए
मर गए पर किस तरह गुज़री कहो

पाइमालो इश्क़ में क्यूँकर कटी
कोहकन से सरगुज़श्ते अपनी कहो

चश्म-ए-तर पर दज्ला-ओ-जीहूँ में क्या
अब्र सी छा जाए जो फबती कहो

शम-ओ-परवाना जो पूछें सोज़-ए-इश्क़
अपनी बीती या मिरी बीती कहो

पीट पीछे बद कहो ऐ आइनो
रू-ब-रू उस के न मुँह-देखी कहो

मुँह लपेटे गोशा-ए-मरक़द में 'शाद'
क्यूँ पड़े चुप हो है कैसा जी कहो