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अहल-ए-फ़न अहल-ए-अदब अहल-ए-क़लम कहते रहे | शाही शायरी
ahl-e-fan ahl-e-adab ahl-e-qalam kahte rahe

ग़ज़ल

अहल-ए-फ़न अहल-ए-अदब अहल-ए-क़लम कहते रहे

इक़बाल माहिर

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अहल-ए-फ़न अहल-ए-अदब अहल-ए-क़लम कहते रहे
बद-ज़बाँ को हम ज़बान-दान-ए-अजम कहते रहे

जब्र-ओ-इस्तिबदाद को जूद-ओ-करम कहते रहे
सब्र-ओ-ताअ'त को ईलाज-ए-दर्द-ओ-ग़म कहते रहे

हम को हर महफ़िल में था आदाब-ए-महफ़िल का ख़याल
एहतिरामन हर किसी को मोहतरम कहते रहे

चश्म-पोशी से रिया-कारी को शह मिलती रही
ऐब-पोशी को शराफ़त का भरम कहते रहे

आबरू-ए-मज़हब-ओ-मिल्लत भी रखनी थी ज़रूर
नंग-ए-मिम्बर को भी हम शैख़-ए-हरम कहते रहे

वो भी निकले रहनुमाओं के नुक़ूश-ए-कजरवी
जिन को राही रास्ते के पेच-ओ-ख़म कहते रहे

बारहा देखा है 'माहिर' उन को मग़्मूम-ओ-मलूल
हम जिन्हें परवर्दा-ए-नाज़-ओ-निअ'म करते रहे