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अहद जैसे भी बंधे थे तेरे मेरे दरमियाँ | शाही शायरी
ahd jaise bhi bandhe the tere mere darmiyan

ग़ज़ल

अहद जैसे भी बंधे थे तेरे मेरे दरमियाँ

मोहम्मद फ़ख़रुल हक़ नूरी

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अहद जैसे भी बंधे थे तेरे मेरे दरमियाँ
दर्द के रिश्ते जुड़े थे तेरे मेरे दरमियाँ

ग़ैर-मुमकिन था फ़सीलें फ़ासलों की फाँदना
क़िस्मतों के फ़ैसले थे तेरे मेरे दरमियाँ

इक तकल्लुम का तअल्लुक़ तोड़ने से क्या हुआ
और भी कुछ राब्ते थे तेरे मेरे दरमियाँ

क्या कहूँ मंज़िल की उस की सम्त भी कोई न थी
रास्ते ही रास्ते थे तेरे मेरे दरमियाँ

तेरे दिल का मान टूटे मैं ने कब चाहा मगर
और भी कुछ दिल पड़े थे तेरे मेरे दरमियाँ

वस्ल की सरशारियों से जो न हो सकते थे हल
ऐसे भी कुछ मसअले थे तेरे मिरे दरमियाँ

सामना था इक तो दरिया-ए-तलातुम-ख़ेज़ का
और कुछ कच्चे घड़े थे तेरे मेरे दरमियाँ

था सफ़र दरपेश जाने कितने 'नूरी' साल का
कैसे कैसे फ़ासले थे तेरे मेरे दरमियाँ