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अगरचे रोज़ मिरा सब्र आज़माता है | शाही शायरी
agarche roz mera sabr aazmata hai

ग़ज़ल

अगरचे रोज़ मिरा सब्र आज़माता है

राना आमिर लियाक़त

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अगरचे रोज़ मिरा सब्र आज़माता है
मगर ये दरिया मुझे तैरना सिखाता है

ये क्या घुटन है मोहब्बत की पहरे-दारी में
वो काग़ज़ों पे खुली खिड़कियाँ बनाता है

उसे पता है कहाँ हाथ थामना है मिरा
उसे पता है कहाँ पेड़ सूख जाता है

मैं उस की नज़रों का कुछ इस लिए भी हूँ क़ाइल
वो जिस को चाहे उसे देखना सिखाता है