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अगरचे मुझ को जुदाई तिरी गवारा नहीं | शाही शायरी
agarche mujhko judai teri gawara nahin

ग़ज़ल

अगरचे मुझ को जुदाई तिरी गवारा नहीं

क़तील शिफ़ाई

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अगरचे मुझ को जुदाई तिरी गवारा नहीं
सिवाए इस के मगर और कोई चारा नहीं

ख़ुशी से कौन भुलाता है अपने प्यारों को
क़ुसूर इस में ज़माने का है तुम्हारा नहीं

तुम्हारे ज़िक्र से याद आए क्या घटा के सिवा
हमारे पास कोई और इस्तिआरा नहीं

ये इल्तिफ़ात की भीक अपने पास रहने दे
तिरे फ़क़ीर ने दामन कभी पसारा नहीं

मिरा तो सिर्फ़ भँवर तक सफ़ीना पहुँचा है
तुझे तो डूबने वालों ने भी पुकारा नहीं

हर एक रब्त तिरे वास्ते से था वर्ना
भरे जहाँ में कोई आश्ना हमारा नहीं

जो तेरी दीद ने बख़्शे वही हैं ज़ख़्म बहुत
अब अपने दिल में कोई हसरत-ए-नज़ारा नहीं

बना सकूँ जिसे झूमर तुम्हारे माथे का
फ़लक पे आज भी ऐसा कोई सितारा नहीं

चलाए जाओ 'क़तील' अपना कारोबार-ए-वफ़ा
जो इस में जान भी जाए तो कुछ ख़सारा नहीं