EN اردو
अगर ख़ुशी में तुझे गुनगुनाते लगते हैं | शाही शायरी
agar KHushi mein tujhe gungunate lagte hain

ग़ज़ल

अगर ख़ुशी में तुझे गुनगुनाते लगते हैं

अशफ़ाक़ नासिर

;

अगर ख़ुशी में तुझे गुनगुनाते लगते हैं
तो लोग शहर से आँसू बहाने लगते हैं

निकल के आँख से लफ़्ज़ों में आने लगते हैं हैं
मियाँ ये अश्क हैं यूँही ठिकाने लगते हैं

गुज़र चुके हैं किसी अक्स की मअय्यत में
हम ऐसे लोग जो आईना-ख़ाने लगते हैं

तो करने लगते हैं ग़ुस्ल-ए-तलाश-ए-मिसरा-ए-नौ
हम अपने आप को जब भी पुराने लगते हैं

बग़ौर देखें तो यक-जस्त फ़ासले पे है तू
लगाना चाहें तो सदियाँ ज़माने लगते हैं

शजर हूँ और परिंदों से है बहार मिरी
ये मुझ पे आएँ तो फल-फूल आने लगते हैं

करें तो क्या हमें अम्बोह-ए-ख़्वाब रोकता है
कभी जो सोए हुओं को जगाने लगते हैं

हम आइने में तिरा अक्स देखने के लिए
कई चराग़ नदी में बहाने लगते हैं