अफ़्सुर्दगी आज़ुर्दगी पज़मुर्दगी बे-कार है
उस पे है जिस का तवक्कुल ख़ुश है बेड़ा पार है
हौसला हो अज़्म हो मेहनत हो और उम्मीद-वार
और कुछ उस के सिवा क्या ज़ीस्त में दरकार है
जिस ने समझा ज़िंदगी को जंग है वो कामयाब
क़ाबिल-ए-तहसीं है वो जो बर-सर-ए-पैकार है
लानतें और ज़िल्लतें रुस्वाइयाँ नाकामियाँ
उस की क़िस्मत में है जो कि ज़ीस्त से बेज़ार है
जिस की ख़ुशियों का सदा 'हस्सान' ने रक्खा ख़याल
आज मेरी जान के वो दरपय आज़ार है

ग़ज़ल
अफ़्सुर्दगी आज़ुर्दगी पज़मुर्दगी बे-कार है
मोहम्मद हाज़िम हस्सान