अदा अदा तिरी मौज-ए-शराब हो के रही
निगाह-ए-मस्त से दुनिया ख़राब हो के रही
ग़ज़ब था उन का तलव्वुन कि चार ही दिन में
निगाह-ए-लुत्फ़ निगाह-ए-इताब हो के रही
तिरी गली की हवा दिल को रास क्या आती
हुआ ये हाल कि मिट्टी ख़राब हो के रही
वो आह-ए-दिल जिसे सुन सुन के आप हँसते थे
ख़दंग-ए-नाज़ का आख़िर जवाब हो के रही
पड़ी थी किश्त-ए-तमन्ना जो ख़ुश्क मुद्दत से
रहीन-ए-मिन्नत-ए-चश्म-ए-पुर-आब हो के रही
हमारी कश्ती-ए-तौबा का ये हुआ अंजाम
बहार आते ही ग़र्क़-ए-शराब हो के रही
किसी में ताब कहाँ थी कि देखता उन को
उठी नक़ाब तो हैरत नक़ाब हो के रही
वो बज़्म-ए-ऐश जो रहती थी गर्म रातों को
फ़साना हो के रही एक ख़्वाब हो के रही
'जलील' फ़स्ल-ए-बहारी की देखिए तासीर
गिरी जो बूँद घटा से शराब हो के रही

ग़ज़ल
अदा अदा तिरी मौज-ए-शराब हो के रही
जलील मानिकपूरी