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अब्र-पारा हूँ कोई दम में चला जाऊँगा | शाही शायरी
abr-para hun koi dam mein chala jaunga

ग़ज़ल

अब्र-पारा हूँ कोई दम में चला जाऊँगा

ज्ञान चंद जैन

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अब्र-पारा हूँ कोई दम में चला जाऊँगा
नक़्श-बर-आब हूँ लहरों में समा जाऊँगा

धार पर अपने तअक़्क़ुल को चढ़ा जाऊँगा
रस्म-ए-आज़ादी-ए-अफ़्कार उठा जाऊँगा

ये अक़ाएद हैं छलावे उन्हें इफ़शा कर दे
मा'नी-ए-सीमिया दुनिया को बता जाऊँगा

सर में सौदों के बुना करता हूँ ताने बाने
अहल-ए-तदबीर को चक्कर में फँसा जाऊँगा

कैसे तर्सील करूँ सामा-ए-याराँ तक
शहर-आशोब परिंदों का सुना जाऊँगा

मुँह को बे-रूह किताबों से बसीरत न मिली
शहर से जाते हुए सब को जला जाऊँगा