अब्र क्या घिर घिर के आया खुल गया 
बस सबात-ए-बहर-ए-दुनिया खुल गया 
राज़-ए-दिल कितना छुपाया खुल गया 
हाल इस दौलत-सरा का खुल गया 
हुस्न-ए-आरिज़ आरज़ी था खुल गया 
ख़त के आते ही लिफ़ाफ़ा खुल गया 
आँख से रूमाल सरका बा'द-ए-मर्ग 
चश्म-ए-तर का आज पर्दा खुल गया 
तुम जो बोले हो गया साबित दहन 
बातों ही बातों में उक़्दा खुल गया 
कट गया सर हल हुई मुश्किल मिरी 
नाख़ुन-ए-ख़ंजर से उक़्दा खुल गया 
बे-ज़बानी बातें सुनवाने लगी 
गालियों पर मुँह तुम्हारा खुल गया 
था क़लम-बंद अपनी आज़ादी का हाल 
ख़त को जब उस ने लपेटा खुल गया 
ख़त पे ख़त लाए जो मुर्ग़-ए-नामा-बर 
बोले इन मुर्गों का डरबा खुल गया
        ग़ज़ल
अब्र क्या घिर घिर के आया खुल गया
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर लखनवी

