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अब्र-ए-दीदा का मिरे हो जो न ओझढ़ पानी | शाही शायरी
abr-e-dida ka mere ho jo na ojhaD pani

ग़ज़ल

अब्र-ए-दीदा का मिरे हो जो न ओझढ़ पानी

शाद लखनवी

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अब्र-ए-दीदा का मिरे हो जो न ओझढ़ पानी
फिर कहीं झिड़की लगाए न कहीं झड़ पानी

मेरे रोने से दिल-ए-संग जो आब आब न हो
कोहसारों से गिरे फिर न धड़ा-धड़ पानी

ये अंधेरा ये शब-ए-तार कहाँ जाओगे
दिन हैं बरसात के गलियों में है कीचड़ पानी

बर्क़-अंदाज़ न किस तरह करूँ नाला-ए-गर्म
जान बेताब है बिजली की तरह तड़ पानी

रश्क-ए-ला'ल‌‌‌‌‌-ए-लब-ए-लालीं से जिगर-ख़ूँ याक़ूत
शर्म-ए-दंदाँ से है मोती की हर इक लड़ पानी

तीर-बाराँ मिज़ा-ए-यार मुझे करती है
मैं समझता हूँ बरसता है झड़ा-झड़ पानी

मैं जो ऐ 'शाद' न रोऊँ सिफ़त अब्र-ए-बहार
पाएँ इक क़तरा कहीं झील न झाबड़ पानी