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अब ये बच्चे नहीं बहलावे में आने वाले | शाही शायरी
ab ye bachche nahin bahlawe mein aane wale

ग़ज़ल

अब ये बच्चे नहीं बहलावे में आने वाले

कौसर मज़हरी

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अब ये बच्चे नहीं बहलावे में आने वाले
कल भी आए थे इधर खेल दिखाने वाले

एक मुद्दत से ख़मोशी का है पहरा हर-सू
जाने किस ओर गए शोर मचाने वाले

हू का आलम जो था पहले वो है क़ाएम अब भी
घूमते थक गए बस्ती को जगाने वाले

इश्क़ की आग ने जल्वों को जवाँ रक्खा है
लोग बाक़ी हैं अभी नाज़ उठाने वाले

उस का हर तीर-ए-नज़र दिल में उतर जाता है
यूँ तो देखे हैं बहुत हम ने निशाने वाले

जिस को करना था यहाँ काम वो तो कर भी गए
रत-जगा करते रहे ढोल बजाने वाले

अब तो सहरा में समुंदर का सकूँ दर आया
जब से अन्क़ा हुए हैं ख़ाक उड़ाने वाले