अब यहाँ लोगों के दुख-सुख का पता क्या आए
बंद हों घर तो मकीनों की सदा क्या आए
डूबते दिन की जिलौ में न सुकूँ है न फ़राग़
शफ़क़-ए-शाम से चेहरों पे ज़िया क्या आए
सर्द सीनों में पनपते ही नहीं दर्द के बीज
इन ख़राबों पे बरसने को घटा क्या आए
दूर हो कैसे तिरे जिस्म तिरी जाँ की घुटन
तंग बे-रौज़न-ओ-दर घर में हवा क्या आए
खो चुके लुत्फ़-ए-सहर-ख़ेज़ी गराँ ख़्वाब-ए-मकीन
सुब्ह-दम बंद दरीचों में सबा क्या आए
ख़ुश्क पत्ते हैं कि झड़ते ही नहीं पेड़ों से
कैसे तब्दील हो रुत रंग नया क्या आए
गर्म हंगामा करे कौन रगों में 'शाहीं'
ख़ुश्क नदियों में कोई मौज-ए-बला क्या आए
ग़ज़ल
अब यहाँ लोगों के दुख-सुख का पता क्या आए
जावेद शाहीन