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अब सरगुज़िश्त-ए-हिज्र सुनाने भी आएगा | शाही शायरी
ab sarguzisht-e-hijr sunane bhi aaega

ग़ज़ल

अब सरगुज़िश्त-ए-हिज्र सुनाने भी आएगा

ऋषि पटियालवी

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अब सरगुज़िश्त-ए-हिज्र सुनाने भी आएगा
जो रूठ कर गया है मनाने भी आएगा

बन जाएँगी क़रार यही बे-क़रारियाँ
ग़म दे गया है जो वो मिटाने भी आएगा

रक्खेगा रखने वाला मिरी बे-कसी की लाज
लुत्फ़-ओ-करम की शान दिखाने भी आएगा

सुनता नहीं जो अब मिरा अहवाल वाक़ई
इक रोज़ ले कर अपने फ़साने भी आएगा

आतश-बजाँ हैं ख़बर से बे-फ़िक्र-ओ--मुतमइन
जिस ने लगाई है वो बुझाने भी आएगा

उस को ख़ुलूस-ए-दिल की कशिश खींच लाएगी
आएगा तो वो आने बहाने भी आएगा

रू-पोश हो सकेंगी कहाँ ख़ुद-नुमाईयाँ
आईना-रू जमाल दिखाने भी आएगा

निखरेगी ये फ़ज़ा-ए-मुकद्दर भी ऐ 'रिशी'
माहौल का मिज़ाज ठिकाने भी आएगा