अब न कुछ सुनना न सुनाना रात गुज़रती जाती है
ख़त्म है अब बे-कहे फ़साना रात गुज़रती जाती है
जल्दी क्या है बर्क़-ए-तबस्सुम धुआँ बनेगा ख़ुद आँसू
दिन हो ले फिर आग लगाना रात गुज़रती जाती है
तश्त-ए-तिलाई में सूरज के एक इक अश्क परख लेना
वक़्त-ए-सहर इल्ज़ाम लगाना रात गुज़रती जाती है
रह नहीं सकते मुजरिम आँसू क़ैदी हबाबी शीशे में
वक़्त पे छलकेगा पैमाना रात गुज़रती जाती है
बिस्तर पर सुर्ख़ अँगारों के धुएँ की चादर ओढ़े हुए
सोता रहता है परवाना रात गुज़रती जाती है
ज़िंदा ख़ून के आँसू हैं ये थोड़ी देर तड़पने दे
वक़्त-ए-सहर मिट्टी में मिलाना रात गुज़रती जाती है
शबनम से फूलों के कटोरे ख़ाली हो जाएँगे 'सिराज'
अश्कों से भर लो पैमाना रात गुज़रती जाती है
ग़ज़ल
अब न कुछ सुनना न सुनाना रात गुज़रती जाती है
सिराज लखनवी