अब न बहल सकेगा दिल अब न दिए जलाइए
इश्क़-ओ-हवस हैं सब फ़रेब आप से क्या छुपाइए
उस ने कहा कि याद हैं रंग तुलू-ए-इश्क़ के
मैं ने कहा कि छोड़िए अब उन्हें भूल जाइए
कैसे नफ़ीस थे मकाँ साफ़ था कितना आसमाँ
मैं ने कहा कि वो समाँ आज कहाँ से लाइए
कुछ तो सुराग़ मिल सके मौसम-ए-दर्द-ए-हिज्र का
संग-ए-जमाल-ए-यार पर नक़्श कोई बनाइए
कोई शरर नहीं बचा पिछले बरस की राख में
हम-नफ़्सान-ए-शो'ला-ख़ू आग नई जलाइए
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ग़ज़ल
अब न बहल सकेगा दिल अब न दिए जलाइए
अहमद मुश्ताक़