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अब मुझे गुलशन से क्या जब ज़ेर-ए-दाम आ ही गया | शाही शायरी
ab mujhe gulshan se kya jab zer-e-dam aa hi gaya

ग़ज़ल

अब मुझे गुलशन से क्या जब ज़ेर-ए-दाम आ ही गया

क़मर जलालवी

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अब मुझे गुलशन से क्या जब ज़ेर-ए-दाम आ ही गया
इक नशेमन था सो वो बिजली के काम आ ही गया

सुन मआल-ए-सोज़-ए-उल्फ़त जब ये नाम आ ही गया
शम्अ आख़िर जल-बुझी परवाना काम आ ही गया

तालिब-ए-दीदार का इसरार काम आ ही गया
सामने कोई ब-हुस्न-ए-इंतिज़ाम आ ही गया

कोशिश-ए-मंज़िल से तो अच्छी रही दीवानगी
चलते-फिरते उन से मिलने का मक़ाम आ ही गया

राज़-ए-उल्फ़त मरने वाले ने छुपाया तो बहुत
दम निकलते वक़्त लब पर उन का नाम आ ही गया

कर दिया मशहूर पर्दे में तुझे ज़हमत न दी
आज को होना हमारा तेरे काम आ ही गया

जब उठा साक़ी तो वाइज़ की न कुछ भी चल सकी
मेरी क़िस्मत की तरह गर्दिश में जाम आ ही गया

हुस्न को भी इश्क़ की ज़िद रखनी पड़ती है कभी
तूर पर मूसा से मिलने का पयाम आ ही गया

देर तक बाब-ए-हरम पर रुक के इक मजबूर-ए-इश्क़
सू-ए-बुत-ख़ाना ख़ुदा का ले के नाम आ ही गया

रात भर माँगी दुआ उन के न जाने की 'क़मर'
सुब्ह का तारा मगर ले कर पयाम आ ही गया