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अब क्या कहें किसी से ये अपनी ज़बाँ से हम | शाही शायरी
ab kya kahen kisi se ye apni zaban se hum

ग़ज़ल

अब क्या कहें किसी से ये अपनी ज़बाँ से हम

महेश चंद्र नक़्श

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अब क्या कहें किसी से ये अपनी ज़बाँ से हम
बे-ज़ार हो चुके हैं फ़रेब-ए-जहाँ से हम

नज़्ज़ारा-ए-जमाल का आलम अजीब था
मदहोश ओ बे-ख़बर थे वहाँ बे-ज़बाँ से हम

अब हाल-ए-इज़्तिराब-ए-तबीअत न पूछिए
तड़पे हैं उम्र भर तिरे दर्द-ए-निहाँ से हम

ये ज़ोर-ए-बर्क़-ओ-बाद ये तूफ़ान अल-अमाँ
महरूम हो न जाएँ कहीं आशियाँ से हम

जिन की महक से रूह पे तारी है बे-ख़ुदी
वो फूल चुन रहे हैं तिरे गुलिस्ताँ से हम

तामीर-ए-नौ है पर्दा-ए-तख़रीब में निहाँ
समझे हैं राज़-ए-दहर ये दौर-ए-जहाँ से हम

मंज़िल पे हो रही हैं क़यामत की शोरिशें
ग़ाफ़िल पड़े हुए हैं मगर कारवाँ से हम

नासेह! ख़याल-ए-तर्क-ए-मोहब्बत से फ़ाएदा
वाक़िफ़ नहीं हैं क्या अलम-ए-जावेदाँ से हम

ऐ 'नक़्श' मुख़्तसर ये हक़ीक़त है मौत की
फिर आ गए वहीं पे चले थे जहाँ से हम