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अब के बरसात की रुत और भी भड़कीली है | शाही शायरी
ab ke barsat ki rut aur bhi bhaDkili hai

ग़ज़ल

अब के बरसात की रुत और भी भड़कीली है

मुज़फ़्फ़र वारसी

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अब के बरसात की रुत और भी भड़कीली है
जिस्म से आग निकलती है क़बा गीली है

सोचता हूँ कि अब अंजाम-ए-सफ़र क्या होगा
लोग भी काँच के हैं राह भी पथरीली है

शिद्दत-ए-कर्ब में हँसना तो हुनर है मेरा
हाथ ही सख़्त हैं ज़ंजीर कहाँ ढीली है

गर्द आँखों में सही दाग़ तो चेहरे पे नहीं
लफ़्ज़ धुँदले हैं मगर फ़िक्र तो चमकीली है

घोल देता है समाअत में वो मीठा लहजा
किस को मालूम कि ये क़ंद भी ज़हरीली है

पहले रग रग से मिरी ख़ून निचोड़ा उस ने
अब ये कहता है कि रंगत ही मिरी पीली है

मुझ को बे-रंग ही कर दें न कहीं रंग इतने
सब्ज़ मौसम है हवा सुर्ख़ फ़ज़ा नीली है

मेरी पर्वाज़ किसी को नहीं भाती तो न भाए
क्या करूँ ज़ेहन 'मुज़फ़्फ़र' मिरा जिब्रीली है