अब कौन सी मता-ए-सफ़र दिल के पास है
इक रौशनी-ए-सुब्ह थी वो भी उदास है
इक एक करके फ़ाश हुए जा रहे हैं राज़
शायद ये काएनात क़रीन-ए-क़यास है
समझा गई ये तलख़ी-ए-पैहम फ़िराक़ की
इक मुज़्दा-ए-विसाल में कितनी मिठास है
हर चीज़ आ रही है नज़र अपने रूप में
उतरा हुआ फ़रेब-ए-नज़र का लिबास है
इक गर्दिश-ए-दवाम में रोज़ अज़ल से है
वो चश्म-ए-बा-ख़बर कि जो मर्दुम-शनास है
फ़ितरत कहाँ थी अपनी 'तमन्नाई' शबनमी
लेकिन किसी की शोला-निगाही का पास है
ग़ज़ल
अब कौन सी मता-ए-सफ़र दिल के पास है
अज़ीज़ तमन्नाई