अब इस से बढ़ के क्या नाकामियाँ होंगी मुक़द्दर में
मैं जब पहुँचा तो कोई भी न था मैदान-ए-महशर में
इलाही नहर-ए-रहमत बह रही है इस में डलवा दे
गुनहगारों के इस्याँ बाँध कर दामान-ए-महशर में
खुले गेसू तो दीदार-ए-ख़ुदा भी हो गया मुश्किल
क़यामत का अँधेरा छा गया मैदान-ए-महशर में
शरीक-ए-कसरत-ए-मख़्लूक़ तू क्यूँ हो गया यारब
तिरी वहदत का पर्दा क्या हुआ मैदान-ए-महशर में
क़यामत तो हमारी थी हम आपस में निबट लेते
कोई पूछे ख़ुदा क्यूँ आ गया मैदान-ए-महशर में
किसी का आबला-पा क़ब्र से ये पूछता उट्ठा
कहीं थोड़े बहुत काँटे भी हैं मैदान-ए-महशर में
इलाही दर्द के क़िस्से बहुत हैं वक़्त थोड़ा है
शब-ए-फ़ुर्क़त का दामन बाँध दे दामान-ए-महशर में
न उठते कुश्तगान-ए-नाज़ हरगिज़ अपनी तुर्बत से
तिरी आवाज़ शामिल हो गई थी सूर-ए-महशर में
तह-ए-मदफ़न मुझे रहते ज़माना हो गया 'मुज़्तर'
कुछ ऐसी नींद सोया हूँ कि अब जागूँगा महशर में
ग़ज़ल
अब इस से बढ़ के क्या नाकामियाँ होंगी मुक़द्दर में
मुज़्तर ख़ैराबादी