EN اردو
अब इस मकाँ में नया कोई दर नहीं करना | शाही शायरी
ab is makan mein naya koi dar nahin karna

ग़ज़ल

अब इस मकाँ में नया कोई दर नहीं करना

अहमद महफ़ूज़

;

अब इस मकाँ में नया कोई दर नहीं करना
ये काम सहल बहुत है मगर नहीं करना

ज़रा ही देर में क्या जाने क्या हो रात का रंग
सो अब क़याम सर-ए-रहगुज़र नहीं करना

बयाँ तो कर दूँ हक़ीक़त उस एक रात की सब
प शर्त ये है किसी को ख़बर नहीं करना

रफ़ूगरी को ये मौसम है साज़गार बहुत
हमें जुनूँ को अभी जामा-दर नहीं करना

ख़बर है गर्म किसी क़ाफ़िले के लुटने की
ये वाक़िआ है तो सैर ओ सफ़र नहीं करना