अब धूप मुक़द्दर हुई छप्पर न मिलेगा
हम ख़ाना-ब-दोशों को कहीं घर न मिलेगा
आवारा तमन्नाओं को गर सम्त न दोगे
भटकी हुई उम्मत को पयम्बर न मिलेगा
सूरज ही नज़र आएगा नेज़े पे हमेशा
सच्चाई के शानों पे कभी सर न मिलेगा
अल्फ़ाज़ मसाइल के शरारों से भरे हैं
ग़ज़लों में मिरी हुस्न का पैकर न मिलेगा
हारोगे जो हिम्मत तो डुबो देगा समुंदर
साहिल तुम्हें कश्ती से उतर कर न मिलेगा
उस बाग़ में खिलते हैं अभी झुलसे हुए फूल
उस बाग़ में ख़ुश्बू को अभी घर न मिलेगा
ये सोच के आया है तिरे शहर में 'अंजुम'
आईनों के इस शहर में पत्थर न मिलेगा
ग़ज़ल
अब धूप मुक़द्दर हुई छप्पर न मिलेगा
फ़ारूक़ अंजुम