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अब भी पर्दे हैं वही पर्दा-दरी तो देखो | शाही शायरी
ab bhi parde hain wahi parda-dari to dekho

ग़ज़ल

अब भी पर्दे हैं वही पर्दा-दरी तो देखो

मज़हर इमाम

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अब भी पर्दे हैं वही पर्दा-दरी तो देखो
अक़्ल का दावा-ए-बालिग़-नज़री तो देखो

सर पटकते हैं कि दीवार-ए-ख़ुमिस्ताँ ढा दें
हज़रत-ए-शैख़ की आशुफ़्ता-सरी तो देखो

आज हर ज़ख़्म के मुँह में है ज़बान-ए-फ़रियाद
मेरे ईसा की ज़रा चारागरी तो देखो

क़ैद-ए-नज़्ज़ारा से जल्वों को निकलने न दिया
दोस्तों की ये वसीअ-उन-नज़री तो देखो

उन से पहले ही चले आए जनाब-ए-नासेह
मेरे नालों की ज़रा ज़ूद-असरी तो देखो

है तग़ाफ़ुल कि तवज्जोह नहीं खुलने पाता
हुस्न-ए-मासूम की बेदाद-गरी तो देखो

मुझ से ही पूछ रहा है मिरी मंज़िल का पता
मेरे रहबर की ज़रा राह-बरी तो देखो

उन को दे आए हैं ख़ुद अपनी मोहब्बत के ख़ुतूत
ग़म-गुसारों की ज़रा नामा-बरी तो देखो

दोनों ही राह में टकराते चले जाते हैं
इश्क़ और अक़्ल की ये हम-सफ़री तो देखो

जावेदाँ क़ुर्ब के लम्हात हुए हैं मज़हर
ताइर-ए-वक़्त की बे-बाल-ओ-परी तो देखो