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अब भी आज़ाद फ़ज़ाओं का न इम्काँ निकला | शाही शायरी
ab bhi aazad fazaon ka na imkan nikla

ग़ज़ल

अब भी आज़ाद फ़ज़ाओं का न इम्काँ निकला

कर्रार नूरी

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अब भी आज़ाद फ़ज़ाओं का न इम्काँ निकला
बाब-ए-गुलशन जिसे समझे दर-ए-ज़िंदाँ निकला

इतना नज़दीक मिरे तू भी कभी आ न सका
जितना नज़दीक मिरे ये ग़म-ए-दौराँ निकला

उन की महफ़िल से मैं ले आया तमन्ना उन की
लोग समझे थे कि मैं बे-सर-ओ-सामाँ निकला

रुक के इक अश्क ने क्या क्या न जलाया हम को
दिल का सूरज भी चराग़-ए-तह-ए-दामाँ निकला

हम ने देखा तो कोई इश्क़ का तालिब ही न था
हम ने पूछा तो हर इक साहब-ए-ईमाँ निकला

जब भी मालूम किया अपनी तबाही का सबब
अपने हाथों में ख़ुद अपना ही गरेबाँ निकला

ख़ुद-नुमाई भी अजब ज़ुल्म है 'नूरी' मुझ पर
हाए वो वक़्त कि मैं ख़ुद से गुरेज़ाँ निकला