अब भी आज़ाद फ़ज़ाओं का न इम्काँ निकला
बाब-ए-गुलशन जिसे समझे दर-ए-ज़िंदाँ निकला
इतना नज़दीक मिरे तू भी कभी आ न सका
जितना नज़दीक मिरे ये ग़म-ए-दौराँ निकला
उन की महफ़िल से मैं ले आया तमन्ना उन की
लोग समझे थे कि मैं बे-सर-ओ-सामाँ निकला
रुक के इक अश्क ने क्या क्या न जलाया हम को
दिल का सूरज भी चराग़-ए-तह-ए-दामाँ निकला
हम ने देखा तो कोई इश्क़ का तालिब ही न था
हम ने पूछा तो हर इक साहब-ए-ईमाँ निकला
जब भी मालूम किया अपनी तबाही का सबब
अपने हाथों में ख़ुद अपना ही गरेबाँ निकला
ख़ुद-नुमाई भी अजब ज़ुल्म है 'नूरी' मुझ पर
हाए वो वक़्त कि मैं ख़ुद से गुरेज़ाँ निकला

ग़ज़ल
अब भी आज़ाद फ़ज़ाओं का न इम्काँ निकला
कर्रार नूरी