अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएँ हम
ये भी बहुत है तुझ को अगर भूल जाएँ हम
सहरा-ए-ज़िंदगी में कोई दूसरा न था
सुनते रहे हैं आप ही अपनी सदाएँ हम
इस ज़िंदगी में इतनी फ़राग़त किसे नसीब
इतना न याद आ कि तुझे भूल जाएँ हम
तू इतनी दिल-ज़दा तो न थी ऐ शब-ए-फ़िराक़
आ तेरे रास्ते में सितारे लुटाएँ हम
वो लोग अब कहाँ हैं जो कहते थे कल 'फ़राज़'
हे हे ख़ुदा-न-कर्दा तुझे भी रुलाएँ हम
ग़ज़ल
अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएँ हम
अहमद फ़राज़