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अब अपने दीदा-ओ-दिल का भी ए'तिबार नहीं | शाही शायरी
ab apne dida-o-dil ka bhi etibar nahin

ग़ज़ल

अब अपने दीदा-ओ-दिल का भी ए'तिबार नहीं

आनंद नारायण मुल्ला

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अब अपने दीदा-ओ-दिल का भी ए'तिबार नहीं
उसी को प्यार किया जिस के दिल में प्यार नहीं

नहीं कि मुझ को तबीअ'त पे इख़्तियार नहीं
हर इक जाम से पी लूँ वो बादा-ख़्वार नहीं

हर एक गाम पे काँटों की हैं कमीं-गाहें
शबाब आह शगूफ़ों की रहगुज़ार नहीं

भरी हुई है वो काम-ओ-दहन में तल्ख़ी-ए-ज़ीस्त
कि लब पे जाम-ए-मोहब्बत भी ख़ुश-गवार नहीं

न मेरे अश्कों से दामन पे तेरे आएगी आँच
ये शो'ला-रू हैं मगर फ़ितरत-ए-शरार नहीं

कहीं छुपाए से छुपती भी है हक़ीक़त-ए-ग़म
वो ग़म ही क्या जो मसर्रत से आश्कार नहीं

मैं तेरी याद से बहका चुका हूँ यूँ दिल को
कि अब मुझे तिरी फ़ुर्क़त भी नागवार नहीं

मिरे सुकूँ के लिए क्यूँ ये कोशिश-ए-पैहम
क़रार छीनने वाले तुझे क़रार नहीं

जहान-ए-अक़्ल के नफ़रत-कदों में बट जाता
हज़ार शुक्र मोहब्बत पे इख़्तियार नहीं

किसी की लूट के राहत ख़ुशी नहीं मिलती
ख़िज़ाँ के हाथ में सर्माया-ए-बहार नहीं

निगाह-ए-दोस्त को इस की भी है ख़बर लेकिन
वो राज़ जिस का अभी दिल भी राज़दार नहीं

तवज्जा-ए-निगह-ए-यार का सबब मा'लूम
दिल-ए-गिरफ़्ता-ए-'मुल्ला' अभी शिकार नहीं