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अब अहल-ए-दर्द ये जीने का एहतिमाम करें | शाही शायरी
ab ahl-e-dard ye jine ka ehtimam karen

ग़ज़ल

अब अहल-ए-दर्द ये जीने का एहतिमाम करें

मजरूह सुल्तानपुरी

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अब अहल-ए-दर्द ये जीने का एहतिमाम करें
उसे भुला के ग़म-ए-ज़िंदगी का नाम करें

फ़रेब खा के उन आँखों का कब तलक ऐ दिल
शराब-ए-ख़ाम पिएँ रक़्स-ए-ना-तमाम करें

ग़म-ए-हयात ने आवारा कर दिया वर्ना
थी आरज़ू कि तिरे दर पे सुब्ह ओ शाम करें

न माँगूँ बादा-ए-गुल-गूँ से भीक मस्ती की
अगर तिरे लब-ए-लालीं मिरा ये काम करें

न देखें दैर ओ हरम सू-ए-रह-रवान-ए-हयात
ये क़ाफ़िले तो न जाने कहाँ क़याम करें

हैं इस कशाकश-ए-पैहम में ज़िंदगी के मज़े
फिर एक बार कोई सई-ए-ना-तमाम करें

सिखाएँ दस्त-ए-तलब को अदा-ए-बेबाकी
पयाम-ए-ज़ेर-लबी को सला-ए-आम करें

ग़ुलाम रह चुके तोड़ें ये बंद-ए-रुस्वाई
कुछ अपने बाज़ू-ए-मेहनत का एहतिराम करें

ज़मीं को मिल के सँवारें मिसाल-ए-रू-ए-निगार
रुख़-ए-निगार से रौशन चराग़-ए-बाम करें

फिर उठ के गर्म करें कारोबार-ए-ज़ुल्फ़-ओ-जुनूँ
फिर अपने साथ उसे भी असीर-ए-दाम करें

मिरी निगाह में है अर्ज़-ए-मास्को 'मजरूह'
वो सरज़मीं कि सितारे जिसे सलाम करें