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अब आए हो सदा सुन कर गजर की | शाही शायरी
ab aae ho sada sun kar gajar ki

ग़ज़ल

अब आए हो सदा सुन कर गजर की

नसीम देहलवी

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अब आए हो सदा सुन कर गजर की
कहो जी शब कहाँ तुम ने बसर की

सहर को दफ़्न कर के जाइएगा
मुसीबत और है इक रात-भर की

क़फ़स में बंद करना था जो तक़दीर
नदामत क्यूँ मुझे दी बाल-ओ-पर की

गुज़र जाएगी जो गुज़रेगी हम पर
चलो जी राह लो तुम अपने घर की

अभी तू जान ले ले ऐ ग़म-ए-इश्क़
मुसीबत कौन उठाए उम्र-भर की

ख़ुदा के वास्ते यारो सँभालो
कि फिर शिद्दत हुई दर्द-ए-जिगर की

तरश्शोह आँसुओं का हो रहा है
घटा उमडी हुई है चश्म-ए-तर की

न बोलेंगे तुम्हारे ख़ौफ़ से हम
हिलाएँगे मगर ज़ंजीर दर की

न आना तुम इजाज़त माँगने को
न दिखलाना हमें सूरत सफ़र की

कोई दम का बखेड़ा रह गया है
जिगर तक बर्छियाँ पहुँचें नज़र की

हमें फ़स्साद का मुँह देखना है
उठानी है मुसीबत नेश्तर की

हबाब-आसा है लुत्फ़-ए-ज़िंदगानी
हक़ीक़त कुछ नहीं होती बशर की

'नसीम' अब दिल कताँ की तरह है चाक
मोहब्बत में किसी रश्क-ए-क़मर की