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आया तो दिल-ए-वहशी दर-बंद-ए-नियाज़ आया | शाही शायरी
aaya to dil-e-wahshi dar-band-e-niyaz aaya

ग़ज़ल

आया तो दिल-ए-वहशी दर-बंद-ए-नियाज़ आया

नातिक़ गुलावठी

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आया तो दिल-ए-वहशी दर-बंद-ए-नियाज़ आया
बरगश्ता मुक़द्दर था सर-गश्ता-ए-नाज़ आया

इक हर्फ़-ए-शिकायत पर क्यूँ रूठ के जाते हो
जाने दो गए शिकवे आ जाओ मैं बाज़ आया

नौ-वारिद-ए-हस्ती उठ किस वहम में बैठा है
होती है अज़ाँ सुन ले चल वक़्त-ए-नमाज़ आया

बर्दाश्ता-ख़ातिर था इशरत की हक़ीक़त से
मैं दाम-ए-मुसीबत में आसूदा-ए-राज़ आया

राहत-गह-ए-तुर्बत से तू ने तो बहुत रोका
मरमर के मगर मैं भी ऐ उम्र-ए-दराज़ आया

भूला हुआ फिरता है दिल अपनी हक़ीक़त को
ले ऐ ग़म-ए-हस्ती ले इक महव-ए-मजाज़ आया

कल हय्या-अला की सी आवाज़ इक आई थी
'नातिक़' ने कहा सुन कर हाँ बंदा-नवाज़ आया