आवारा सा गलियों में जो मैं घूम रहा हूँ
ज़ाहिर है तिरी दीद से महरूम रहा हूँ
फिर आँखें बिछाए हुए हूँ राह में उस की
फिर हर किसी रह-रव के क़दम चूम रहा हूँ
ये है मिरी बेदारी-ए-क़ल्बी की ही इक वज़्अ
हर-चंद तिरी बज़्म में मैं झूम रहा हूँ
ग़द्दारी-ए-उल्फ़त तो नहीं है मिरा शेवा
इस जुर्म के ही ख़्याल से मासूम रहा हूँ
ख़ुश-क़िस्मती-ए-अहल-ए-जुनूँ है मिरा हिस्सा
आसाइश-ए-दुनियावी से महरूम रहा हूँ
मैं बारगह-ए-हुस्न से मायूस न आता
ग़म है वले तक़दीर में मग़्मूम रहा हूँ
हूँ क्या कि जो वो क़द्र भी करते मिरी 'रहबर'
इक हर्फ़ हूँ और हर्फ़ भी मौहूम रहा हूँ

ग़ज़ल
आवारा सा गलियों में जो मैं घूम रहा हूँ
जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर