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आवारा सा गलियों में जो मैं घूम रहा हूँ | शाही शायरी
aawara sa galiyon mein jo main ghum raha hun

ग़ज़ल

आवारा सा गलियों में जो मैं घूम रहा हूँ

जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर

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आवारा सा गलियों में जो मैं घूम रहा हूँ
ज़ाहिर है तिरी दीद से महरूम रहा हूँ

फिर आँखें बिछाए हुए हूँ राह में उस की
फिर हर किसी रह-रव के क़दम चूम रहा हूँ

ये है मिरी बेदारी-ए-क़ल्बी की ही इक वज़्अ
हर-चंद तिरी बज़्म में मैं झूम रहा हूँ

ग़द्दारी-ए-उल्फ़त तो नहीं है मिरा शेवा
इस जुर्म के ही ख़्याल से मासूम रहा हूँ

ख़ुश-क़िस्मती-ए-अहल-ए-जुनूँ है मिरा हिस्सा
आसाइश-ए-दुनियावी से महरूम रहा हूँ

मैं बारगह-ए-हुस्न से मायूस न आता
ग़म है वले तक़दीर में मग़्मूम रहा हूँ

हूँ क्या कि जो वो क़द्र भी करते मिरी 'रहबर'
इक हर्फ़ हूँ और हर्फ़ भी मौहूम रहा हूँ