आतिश-ए-मीना नज़र आई हरीफ़ाना मुझे
इक तग़य्युर की ख़बर देता है पैमाना मुझे
तिश्ना-ए-नाज़ुक मिज़जान-ए-कनिश्त-ओ-दैर का
बरहमन कहने भी दे एक-आध अफ़्साना मुझे
किस क़दर हैरत-असर निकली है मर्ग-ए-अंदलीब
इस सिपास-ए-जाँ से गुल लगता है बेगाना मुझे
इक ख़याल-ए-ज़ुल्फ़-ए-जानाँ इक हवा-ए-पेच-पेच
इक न इक ज़ंजीर-ए-सर रखती है दीवाना मुझे
बोसा-ए-जानाँ में थी यूँ तो हद-ए-शुक्र-ओ-सिपास
चाहिए इक लर्ज़िश-ए-लब भी रक़ीबाना मुझे
उस के पैकर की झलक राहों पे थी नज़दीक ओ दूर
कल ग़ुरूब-ए-महर था इक आईना-ख़ाना मुझे
शहर जिन के नाम से ज़िंदा था वो सब उठ गए
इक इशारे से तलब करता है वीराना मुझे
ग़ज़ल
आतिश-ए-मीना नज़र आई हरीफ़ाना मुझे
अज़ीज़ हामिद मदनी