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आतिश-ए-इश्क़-ए-बला आग लगाए न बने | शाही शायरी
aatish-e-ishq-e-bala aag lagae na bane

ग़ज़ल

आतिश-ए-इश्क़-ए-बला आग लगाए न बने

पंडित जगमोहन नाथ रैना शौक़

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आतिश-ए-इश्क़-ए-बला आग लगाए न बने
और हम उस को बुझाएँ तो बुझाए न बने

रंग-ए-रुख़ उड़ने पे आज जाए तो रोके न रुके
लाख वो राज़ छुपाएँ तो छुपाए न बने

क्या मज़ा हो न रहे याद जो अंदाज़-ए-जफ़ा
मैं कहूँ भी कि सताओ तो सताए न बने

ख़ुद वफ़ा है मिरी शाहिद कि वफ़ादार हूँ मैं
लाख तुम दिल से भुलाओ तो भुलाए न बने

दिल के हर ज़र्रा में है सोज़-ए-मोहब्बत की नुमूद
ख़ाक में इन को मिलाऊँ तो मिलाए न बने

राह-ए-उल्फ़त ने कुछ ऐसी मिरी सूरत बदली
दामन-ए-दश्त छुपाए तो छुपाए न बने

दिल को अब ताब-ए-तलाफ़ी ओ मुदावा अभी नहीं
चारागर आए तो एहसान उठाए न बने

कोई ख़ाका मिरी तस्वीर का खींचे तो सही
खिंच भी जाए कोई नक़्शा तो मिटाए न बने

मौत क़ाबू की नहीं और न ठिकाना इस का
कोई वक़्त उस पे भी आए कि बनाए न बने

ऐसे ढब से हो गिला उन की सितम का ऐ 'शौक़'
बात कुछ चाहें बनानी तो बनाए न बने