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आतिश-ए-हुस्न से इक आब है रुख़्सारों में | शाही शायरी
aatish-e-husn se ek aab hai ruKHsaron mein

ग़ज़ल

आतिश-ए-हुस्न से इक आब है रुख़्सारों में

मुज़्तर ख़ैराबादी

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आतिश-ए-हुस्न से इक आब है रुख़्सारों में
ऐ तिरी शान कि पानी भी है अँगारों में

दम निकल जाएगा रुख़्सत का अभी नाम न लो
तुम जो उठ्ठे तो बिठा दूँगा अज़ादारों में

जा के अब नार-ए-जहन्नम की ख़बर ले ज़ाहिद
नद्दियाँ बह गईं अश्कों की गुनहगारों में

नौबतें नाला-ए-रुख़्सत का पता देती हैं
मातम-ए-इश्क़ की आवाज़ है नक़्क़ारों में

मुझ को इस दर्द की थोड़ी सी कसक है दरकार
जो दवा बन के बटा है तिरे बीमारों में

बे-तलब उस ने दिखाया रुख़-ए-रौशन 'मुज़्तर'
नाम मूसा का नहीं उस के तलब-गारों में