आस्तीं में साँप इक पलता रहा
हम ये समझे हादसा टलता रहा
आप तो इक बात कह कर चल दिए
रात-भर बिस्तर मिरा जलता रहा
एक ग़म से कितने ग़म पैदा हुए
दिल हमारा फूलता-फलता रहा
ज़िंदगी की आस भी क्या आस है
मौज-ए-दरिया पर दिया जलता रहा
इक नज़र तिनका बनी कुछ इस तरह
देर तक आँखें कोई मलता रहा
ये निशाँ कैसे हैं 'बाक़ी' देखना
कौन दिल की राख पर चलता रहा
ग़ज़ल
आस्तीं में साँप इक पलता रहा
बाक़ी सिद्दीक़ी