आसमाँ का न रहा और ज़मीं का न रहा
ग़म की जो शाख़ से टूटा वो कहीं का न रहा
इतने बे-रंग उजालों से नज़र गुज़री है
हौसला आँख को अब ख़्वाब-ए-हसीं का न रहा
वक़्त ने सारे भरोसों के शजर काट दिए
अब तो साया भी कोई ख़ाक-नशीं का न रहा
कौन अब उस को उजड़ने से बचा सकता है
हाए वो घर कि जो अपने ही मकीं का न रहा
ऐ 'नज़ीर' अपनी शराफ़त है इसी की क़ाइल
हाँ का पाबंद हुआ जब तू ''नहीं'' का न रहा
ग़ज़ल
आसमाँ का न रहा और ज़मीं का न रहा
नज़ीर फ़तेहपूरी