आशोब-ए-हुस्न की भी कोई दास्ताँ रहे
मिटने को यूँ मिटें कि अबद तक निशाँ रहे
तौफ़-ए-हरम में या सर-ए-कू-ए-बुताँ रहे
इक बर्क़-ए-इज़्तिराब रहे हम जहाँ रहे
उन की तजल्लियों का भी कोई निशाँ रहे
हर ज़र्रा मेरी ख़ाक का आतिश-ब-जाँ रहे
क्या क्या हैं दर्द-ए-इश्क़ की फ़ित्ना-तराज़ियाँ
हम इल्तिफ़ात-ए-ख़ास से भी बद-गुमाँ रहे
मेरे सरिश्क-ए-ख़ूँ में है रंगीनी-ए-हयात
या रब फ़ज़ा-ए-हुस्न अबद तक जवाँ रहे
मैं राज़दार-ए-हुस्न हूँ तुम राज़दार-ए-इश्क़
लेकिन ये इम्तियाज़ भी क्यूँ दरमियाँ रहे
ग़ज़ल
आशोब-ए-हुस्न की भी कोई दास्ताँ रहे
असग़र गोंडवी